True Islam– Shia, Shiyat (SHEEYAT)

aap sabki duaao ka talib- Haider Alam Rizvi

214-आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा  (जिसमें रसूले अकरम (स0) की तारीफ़, ओलमा की तौसीफ़ और तक़वा की नसीहत का ज़िक्र किया गया है)

मैं गवाही देता हूँ के वह परवरदिगार ऐसा आदिल है जो अद्ल ही से काम लेता है, और ऐसा हाकिम है जो हक़ व बातिल को जुदा कर देता है और मैं शहादत देता हूँ के मोहम्मद (स0) उसके बन्दे और रसूल हैं और फिर तमाम बन्दों के सरदार भी हैं। जब भी परवरदिगार ने मख़लूक़ात को दो गिरोहों (हक़ व बातिल) में तक़सीम किया है उन्हें (मोहम्मद स0 को) बेहतरीन हिस्से ही में रखा है। आपकी तख़लीक़ (आपके नसब) में न किसी बदकार का कोई हिस्सा है और न किसी फासिक़ व फ़ाजिर का कोई दख़ल है। याद रखो के परवरदिगार ने हर ख़ैर के लिये अहल क़रार दिये हैं और हर हक़ के लिये सुतून और हर इताअत के लिये वसीलाए हिफ़ाज़त क़रार दिया है और तुम्हारे लिये हर इताअत के मौक़े पर ख़ुदा की तरफ़ से एक मददगार का इन्तेज़ाम रहता है जो ज़बानों पर बोलता है और दिलों को ढारस इनायत करता है। इसके वजूद में हर इकतेफ़ा करने के लिये किफ़ायत है और तलबगारे सेहत के लिये शिफ़ा व आफ़ियत है (हर बेनियाज़ी चाहने वाले के लिये बेनियाज़ी और शिफ़ा चाहने वाले के लिये शिफ़ा है)। 

याद रखो के अल्लाह के वह बन्दे जिन्हें उसने इल्म का मुहाफ़िज़ बनाया है वह उसका तहफ़्फ़ुज़ भी करते हैं और उसके चश्मों को जारी भी करते रहते हैं। आपस में मोहब्बत से एक-दूसरे की मदद करते हैं और चाहत के साथ मुलाक़ात करते हैं। सेराब करने वाले (इल्म व हिकमत के साग़रों) चश्मों से मिलकर (छककर) सेराब होते हैं और फिर सेरो सेराब होकर ही बाहर निकलते हैं। उनके आमाल में रैब (शक व शुबह) की आमेज़िश नहीं है और उनके मुआशरे में ग़ीबत का गुज़र नहीं है। इसी अन्दाज़ से मालिक ने उनकी तख़लीक़ की है और उनके एख़लाक़ क़रार दिये हैं और इसी बुनियाद पर वह आपस में मोहब्बत भी करते हैं और मिलते भी रहते हैं। उनकी मिसाल उन दानों की है जिनको इस तरह चुना जाता है के अच्छे दानों को ले लिया जाता है और ख़राब को फेंक दिया जाता है। उन्हें इसी सफ़ाई ने मुमताज़ बना दिया है और उन्हें इसी परख ने साफ़ सुथरा क़रार दे दिया है।

अब हर शख़्स को चाहिये के उन्हीं सिफ़ात को क़ुबूल करके करामत को क़ुबूल करे और क़यामत के आन से पहले होशियार हो जाए। अपने मुख़्तसर दिनों और थोड़े से क़याम के बारे में ग़ौर करे के इस मन्ज़िल को दूसरी मन्ज़िल में बहरहाल बदल जाना है। अब इसका फ़र्ज़ है के नई मन्ज़िल  और जानी पहचानी जाए बाज़गश्त (क़ब्र, बरज़ख़, हश्र) के बारे में अमल करे।

ख़ुशाबहाल (मुबारकबाद) इन क़ल्बे सलीम वालों के लिये जो रहनुमा की इताअत करें और हलाक होने वालों से परहेज़ करें। कोई रास्ता दिखा दे तो देख लें और वाक़ेई राहनुमा अम्र करे तो उसकी इताअत करें, हिदायत की तरफ़ सबक़त करें क़ब्ल इसके के इसके दरवाज़े बन्द हो जाएं और इसके असबाब मुनक़ता हो जाएं। तौबा का दरवाज़ा खोल लें और गुनाहों के दाग़ों को धो ढालें, यही वह लोग हैं जिन्हें सीधे रास्ते पर खड़ा कर दिया गया है और उन्हें वाज़ेह रास्ते की हिदायत मिल गई। (मुबारक हो उस पाक व पाकीज़ा दिल वाले को जो हिदायत करने वाले की पैरवी और तबाही डालने वाले से किनारा करता है और दीदाए बसीरत में जिला बख़्शने वाले की रोशनी और हिदायत करने वाले के हुक्म की फ़रमाबरदारी से सलामती की राह पा लेता है और हिदायत के दरवाज़ों के बन्द और वसाएल व ज़राए के क़ता होने से पहले हिदायत की तरफ़ बढ़ जाता है।) 

(((-दुनिया में साहेबाने इल्म व फ़ज़्ल बेशुमार हैं लेकिन वह अहले इल्म जिन्हें मालिक ने अपने इल्म और अपने दीन का मुहाफ़िज़ बनाया है वह महदूद ही हैं जिनकी सिफ़त यह है के इल्म का तहफ़्फ़ुज़ भी करते हैं और दूसरों को सेराब भी करते रहते हैं, ख़ुद भी सेराब रहते हैं और दूसरों की तशनगी का भी इलाज करते रहते हैं। इनके इल्म में जेहालत और ‘‘लाअदरी’’ का गुज़र नहीं है और वह किसी साएल को महरूम वापस नहीं पेश करत हैं-)))

215 -आपकी दुआ का एक हिस्सा (जिसकी बराबर तकरार फ़रमाया करते थे)

ख़ुदा का शुक्र है के उसने सुबह के हंगाम (मुझे) न मुर्दा बनाया है और न बीमार, न किसी रग पर मर्ज़ का हमला हुआ है और न किसी बदअमली का मुवाख़ेज़ा किया गया है। न मेरी नस्ल को मुनक़ता किया गया है और न अपने दीन में इरतेदाद का शिकार हुआ हूं, न अपने दीन से मुरतद हूँ और न अपने रब का मुनकिर। न अपने ईमान से मुतवह्हश और न अपनी अक़्ल का मख़बूत और न मुझ पर गुज़िश्ता उम्मतों जैसा कोई अज़ाब हुआ है। मैंने इस आलम मे सुबह की है के मैं एक बन्दए ममलूक हूँ जिसने अपने नफ़्स पर ज़ुल्म किया है। ख़ुदाया! तेरी हुज्जत मुझ पर तमाम है और मेरी कोई हुज्जत नहीं है (मेरे लिये अब उज़्र की कोई गुन्जाइश नहीं है)। तू जो दे दे उससे ज़्यादा ले नहीं सकता है (ख़ुदाया मुझमें किसी चीज़ के हासिल करने की क़ूवत नहीं सिवा उसके के जो तू मुझे अता कर दे) और जिस चीज़ से तू न बचाए उससे बच नहीं सकता। 

ख़ुदाया! मैं उस अम्र से पनाह चाहता हूं के तेरी दौलत में रह कर फ़क़ीर हो जाऊ या तेरी हिदायत के बावजूद गुमराह हो जाऊ, या तेरी सलतनत के बावजूद सताया जाऊं या तेरे हाथ में सारे इख़्तेयारात होने के बावजूद मुझ पर दबाव डाला जाए।   ख़ुदाया! मेरी जिन नफ़ीस चीज़ों को मुझसे वापस लेना और अपनी जिन अमानतों को मुझसे पलटाना, उनमें सबसे पहली चीज़ मेरी रूह को क़रार देना।

ख़ुदाया! मैं उस अम्र से तेरी पनाह चाहता हूँ के मैं तेरे इरशादात से बहक जाऊँ या तेरे दीन में किसी फ़ित्ने में मुब्तिला हो जाऊँ या तेरी आई हुई हिदयतों के मुक़ाबले में मुझ पर ख़्वाहिशात का ग़लबा हो जाए। 

216-आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा (जिसे मुक़ामे सिफ़्फ़ीन में इरशाद फ़रमाया)

अम्माबाद! परवरदिगार ने वली अम्र होने की बिना पर मेरा एक हक़ क़रार दिया है और तुम्हारा भी मेरे ऊप एक तरह का हक़ है और हक़ मदह सराई के एतबार से तो बहुत वुसअत रखता है लेकिन इन्साफ़ के एतबार से बहुत तंग है। यह किसी का उस वक़्त तक साथ नहीं देता है जब तक उसके ज़िम्मे कोई हक़ साबित न कर दे और किसी के खि़लाफ़ फ़ैसला नहीं करता है जब तक उसे कोई हक़ न दिलवा दे। अगर कोई हस्ती ऐसी मुमकिन है जिसका दूसरों पर हक़ हो और उस पर किसी का हक़ न हो तो वह सिर्फ़ परवरदिगार की हस्ती है के वह हर शै पर क़ादिर है और उसके तमाम फ़ैसले अद्ल व इन्साफ़ पर मबनी हैं लेकिन उसने भी जब बन्दों पर अपना हक़ इताअत क़रार दिया है तो अपने फ़ज़्ल व करम और अपने उस एहसान की वुसअत की बिना पर जिसका वह अहल है उनका यह हक़ क़रार दे दिया है के उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा सवाब दे दिया जाए। परवरदिगार के मुक़र्रर किये हुए हुक़ूक़ में से वह तमाम हुक़ूक़ है जो उसने एक दूसरे पर क़रार दिये हैं और उनमें मसावात भी कऱार दी है के एक हक़ से दूसरा हक़ पैदा होता है और एक हक़ नहीं पैदा होता है जब तक दूसरा हक़ न पैदा हो और इन तमाम हुक़ूक़ में सबसे अज़ीमतरीन हक़ रिआया पर वाली का हक़ और वाली पर रियाया का हक़ है जिसे परवरदिगार ने एक को दूसरे के लिये क़रार दिया है और इसी से उनकी बाहमी उलफ़तों को मुनज़्ज़म किया है और उनके दीन को इज़्ज़त दी है। रिआया की इस्लाह मुमकिन नहीं है जब तक वाली सॉलेह न हो और वाली सॉलेह नहीं रह सकते हैं जब तक रिआया सॉलेह न हो। अब अगर रिआया ने वाली को उसका हक़ दे दिया और वाली ने रिआया को उनका हक़ दे दिया तो हक़ दोनों के दरम्यान अज़ीज़ रहेगा। दीन के रास्ते क़ायम हो जाएंगे। इन्साफ़ के निशानात बरक़रार रहेंगे और पैग़म्बरे इस्लाम (स0) की सुन्नतें अपने ढर्रे पर चल पड़ेंगी और ज़माना ऐसा सॉलेह हो जाएगा के बक़ाए हुकूमत की उम्मीद भी की जाएगी और दुश्मनों की तमन्नाएं भी नाकाम हो जाएंगी।

लेकिन अगर रिआया हाकिम पर ग़ालिब आ गई या हाकिम ने रिआया पर ज़्यादती की तो कलेमात में इख़्तेलाफ़ हो जाएगा, ज़ुल्म के निशानात ज़ाहिर हो जाएंगे, दीन में मक्कारी बढ़ जाएगी। सुन्नतों के रास्ते नज़र अन्दाज़ हो जाएंगे, ख़्वाहिशात पर अमल होगा, एहकाम मुअत्तल हो जाएंगे और नफ़सानी बीमारियां बढ़ जाएंगी, न बड़े से बड़े हक़ के मोअत्तल हो जाने से कोई वहशत होगी और न बड़े से बड़े बातिल पर अमल दरआमद से कोई परेशानी होगी।
ऐसे मौक़े पर नेक लोग ज़लील कर दिये जाएंगे और शरीर लोगों की इज़्ज़त होगी और बन्दों पर ख़ुदा की उक़ूबतें अज़ीमतर हो जाएंगी।

ख़ुदारा आपस में एक-दूसरे के मुख़लिस रहो (एक दूसरे को समझाते-बुझाते रहो) और एक-दूसरे की मदद करते रहो इसलिये के तुममें कोई शख़्स भी कितना ही ख़ुशनूदिये ख़ुदा की तमअ रखता हो और किसी क़द्र भी ज़हमते अमल बरदाश्त कर ले इताअते ख़ुदा की उस मन्ज़िल तक नहीं पहुंच सकत है जिसका वह अहल है लेकिन फिर भी मालिक का यह हक़्के़ वाजिब उसके बन्दों के ज़िम्मे है के अपने इमकान भर नसीहत करते रहें और हक़ के क़याम में एक दूसरे की मदद करते रहें इसलिये के कोई शख़्स भी हक़ की ज़िम्मेदारी अदा करने में दूसरे की इमदाद से बेनियाज़ नहीं हो सकता है चाहे हक़ में इसकी मन्ज़िलत किसी क़द्र अज़ीम क्यों न हो और दीन में उसकी फ़ज़ीलत को किसी क़द्र तक़द्दुम क्यों न हासिल हो और न कोई शख़्स हक़ में मदद करने या मदद लेने की ज़िम्मेदारी से कमतर हो सकता है चाहे लोगों की नज़र में किसी क़द्र छोटा क्यों न हो (चाहे लोग उसे ज़लील समझें) और चाहे उनकी निगाहों में किसी क़द्र क्यों न गिर जाए (चाहे उनकी निगाहों में किसी क़द्र हक़ीर क्यों न हो)। (इस गुफ़्तगू के बा आपके असहाब में से एक शख़्स ने एक तवील तक़रीर की जिसमें आपकी मदहा व सना के साथ इताअत का वादा किया गया तो आपने फ़रमाया के-)

याद रखो के जिसके दिल में जलाले इलाही की अज़मत और जिसके नफ़्स में इसके मक़ामे उलूहियत की बलन्दी है उसका हक़ यह है के तमाम कायनात उसकी नज़र में छोटी हो जाए और ऐसे लोगों में इस हक़ीक़त का सबसे बड़ा अहल वह है जिस पर उसकी नेमतें अज़ीम और उसके अच्छे एहसानात किये हों, इसलिये के किसी शख़्स पर अल्लाह की नेमतें अज़ीम नहीं होतीं मगर यह के उसका हक़ भी अज़ीमतर हो जाता है और एहकाम के हालात में नेक किरदार अफ़राद के नज़दीक बदतरीन हालत ये है के उनके बारे में ग़ुरूर का गुमान हो जाए और उनके मामेलात को तकब्बुर पर मबनी समझा जाए और मुझे यह बात सख़्त नागवार है के तुम में से किसी को यह गुमान पैदा हो जाए के मैं रोसा (बढ़ चढ़ कर सराहे जाने) को दोस्त रखता हूँ या अपनी तारीफ़ सुनना चाहता हूँ और बेहम्दे अल्लाह मैं ऐसा नहीं हूँ और अगर मैं ऐसी बातें पसन्द भी करता होता तो भी उसे नज़रअन्दाज़ कर देता के मैं अपने को उससे कमतर समझता हूँ के इसी अज़मत व किबरियाई का अहल बन जाऊँ जिसका परवरदिगार हक़दार है। यक़ीनन बहुत से लोग ऐसे हैं जो अच्छी कारकर्दगी पर तारीफ़ को दोस्त रखते हैं लेकिन ख़बरदार तुम लोग मेरी इस बात पर तारीफ़ न करना के मैंने तुम्हारे हुक़ूक़ अदा कर दिये हैं के अभी बहुत से ऐसे हुक़ूक़ का ख़ौफ़ बाक़ी है जो अदा नहीं हो सके हैं और बहुत से फ़राएज़ हैं जिन्हें बहरहाल नाफ़िज़ करना है। देखो मुझसे उस लहजे में बात न करना जिस लहजे में जाबिर बादशाहों से बात की जाती है और न मुझसे इस तरह बचने की कोशिश करना जिस तरह तैश में आने वालों से बचा जाता है, न मुझसे ख़ुशामद के साथ ताल्लुक़ात रखना और न मेरे बारे में यह तसव्वुर करना के मुझे हर्फ़े हक़ गराँ गुज़रेगा और न मैं अपनी ताज़ीम का तलबगार हूँ। इसलिये के जो शख़्स भी हर्फ़े हक़ सुनने को गराँ समझता है या अदल की पेशकश को नापसन्द करता है वह हक़ व अदल पर अमल को यक़ीनन मुश्किलतर ही तसव्वुर करेगा। लेहाज़ा ख़बरदार हर्फ़े हक़ कहने में तकल्लुफ़ न करना और मुन्सिफ़ाना मश्विरा देने से गुरेज़ न करना इसलिये के मैं ज़ाती तौर पर अपने को ग़लती से बालातर नहीं तसव्वुर करता हूँ और न अपने अफ़आल को इस ख़तरे से महफ़ूज़ समझता हूँ मगर यह के मेरा परवरदिगार मेरे नफ़्स को बचा ले के वह इसका मुझसे ज़्यादा साहबे इख़्तेयार है।

देखो हम सब एक ख़ुदा के बन्दे और उसके ममलूक हैं और उसके अलावा कोई दूसरा ख़ुदा नहीं है। वह हमारे नुफ़ूस पर इतना इख़्तेयार रखता है जितना ख़ुद हमें भी हासिल नहीं है और उसी ने हमें साबेक़ा हालात से निकाल कर इस इस्लाह के रास्ते पर लगा दिया है के अब गुमराही हिदायत में तबदील हो गई है और अन्धेपन के बाद बसीरत हासिल हो गई है।

217- आपका इरशादे गिरामी (क़ुरैश से शिकायत और फ़रयाद करते हुए)  

ख़ुदाया! मैं क़ुरैश से और उनके मददगारों से तेरी मदद चाहता हूँ के इन लोगों ने मेरी क़राबतदारी का ख़याल नहीं किया और मेरे ज़र्फे़ अज़मत को इलट दिया है और मुझसे उस हक़ के बारे में झगड़ा करने पर इत्तेहाद कर लिया है जिसका मैं सबसे ज़्यादा हक़दार था और फिर यह कहने लगे के आप इस हक़ को ले लें तो यह भी सही है और आपको इससे रोक दिया जाए तो  यह भी सही है। अब चाहें हम्म व ग़म के साथ सबर करें या रन्ज व अलम के साथ मर जाएं।
ऐसे हालात में मैंने देखा के मेरे पास न कोई मददगार है और न कोई दिफ़ाअ करने वाला सिवाए मेरे घरवालों के, तो मैने उन्हें मौत के मुंह में देने से गुरेज़ किया और बाला आखि़र आँखों में ख़स व ख़ाशाक के होते हुए चश्मपोशी की और गले में फन्दे के होते हुए लोआबे दहन निगल लिया और ग़ुस्से को पीने में ख़ेज़ल से ज़ियाह तल्ख़ ज़ाएक़े पर सब्र किया और छुरियों के ज़ख़्मों से ज़्यादा तकलीफ़देह हालात पर ख़ामोशी इख़्तेयार कर ली।
(सय्यद रज़ी - गुज़िश्ता ख़ुत्बे में यह मज़मून गुज़र चुका है लेकिन रिवायतें मुख़्तलिफ़ थीं लेहाज़ा मैंने दोबारा उसे नक़्ल कर दिया)

218-आपका इरशादे गिरामी (बसरा की तरफ़ आपसे जंग करने के लिये जाने वालों के बारे में)

यह लोग मेरे आमिलों, मेरे ज़ेरे दस्त बैतुलमाल के ख़ेरानादारों और तमाम अहले शहर जो मेरी इताअत व बैअत में थे सबकी तरफ़ वारिद हुए। इनके कलेमात में इफ़तेराक़ पैदा किया। इनके इजतेमाअ को बरबाद किया और मेरे चाहने वालों पर हमला कर दिया और इनमें से एक जमाअत को धोके से क़त्ल भी कर दिया लेकिन दूसरी जमाअत ने तलवारें उठाकर दाँत भींच लिये और बाक़ायदा मुक़ाबला किया यहां तक के हक़ व सिदाक़त के साथ ख़ुदा की बारगाह में हाज़िर हो गए। 

(((-हैरत अंगेज़ बात है के मुसलमान अभी तक इन दो गिरोहों के बारे में हक़ व बातिल का फ़ैसला नहीं कर सका है जिनमें एक तरफ़ नफ़्स रसूल (स0) अली बिन अबीतालिब (अ0) जैसा इन्सान था जो अपनी तारीफ़ को भी गवारा नहीं करता था और हर लम्हे अज़मते ख़ालिक़ के पेशे नज़र अपने आमाल को हक़ीर व मामूली तसव्वुर करता था और एक तरफ़ तल्हा व ज़ुबैर जैसे वह दुनिया परस्त थे जिनका काम फ़ितना परवाज़ी शरांगेज़ी, तफ़रिक़ा अन्दाज़ी और क़त्ल व ग़ारत के अलावा कुछ न था और जो दौलत व इक़तेदार की ख़ातिर व दुनिया की हर बुराई कर सकते थे और हर जुर्म का इरतेकाब कर सकते थे।))

219- आपका इरशादे गिरामी (जब रोज़े जमल तल्हा बिन अब्दुल्लाह और अब्दुर्रहमान बिन अताब बिन उसीद की लाशों के क़रीब से गुज़र हुआ)

अबू मोहम्मद (तल्हा) ने इस मैदान में आलमे ग़ुरबत में सुबह की है, ख़ुदा गवाह है के मुझे यह बात हरगिज़ पसन्द नहीं थी के क़ुरैश के चमकते सितारों के नीचे ज़ेरे आसमान पड़े रहें लेकिन क्या करूं। बहरहाल मैंने अब्द मुनाफ़ की औलाद से उनके किये का बदला ले लिया है (लेकिन) अफ़सोस के बनी जमअ बच कर निकल गए उन सबने अपनी गर्दनें इस अम्र की तरफ़ उठाई थीं जिसके यह हरगिज़ अहल नहीं थे। इसीलिये यहाँ तक पहुंचने से पहले ही इनकी गर्दनें तोड़ दी गईं।

220-आपका इरशादे गिरामी (ख़ुदा की राह में चलने वाले इन्सानों के बारे में)

ऐसे शख़्स ने अपनी अक़्ल को ज़िन्दा रखा है और अपने नफ़्स को मुर्दा बना दिया है। इसका जिस्म बारीक हो गया है और इसका भारी भरकम तनो तोश हल्का हो गया है इसके लिये बेहतरीन ज़ोपाश नूरे हिदायत चमक उठा है और उसने रास्ते को वाज़ेह करके इसी पर चला दिया है। तमाम दरवाज़ों ने उसे सलामती के दरवाज़े और हमेशगी के घर तक पहुंचा दिया है और इसके क़दम तमानीयते बदन के साथ अम्न व राहत की मन्ज़िल में साबित हो गए हैं के इसने अपने दिल को इस्तेमाल किया है और अपने रब को राज़ी कर लिया है।

221- आपका इरशादे गिरामी (जिसे  अलहाकोमुत्तकासोर की तिलावत के मौक़े पर इरशाद फ़रमाया)

ज़रा देखो तो इन आबा व अजदाद पर फ़ख़्र करने वालों का  मक़सद किस क़़द्र बईदुज़ अक़्ल है और यह ज़ियारत करने वाले किस क़द्र ग़ाफ़िल हैं और ख़तरा भी किस क़द्र अज़ीम है। यह लोग तमाम इबरतों से ख़ाली हो गए हैं और इन्होंने मुर्दों को बहुत दूर से ले लिया है और आखि़र यह  क्या अपने आबा व अजदाद के लाशों पर फ़ख़्र कर रहे हैं, या मुर्दो की तादाद से अपनी कसर में इज़ाफ़ कर रहे हैं? या उन जिस्मों को वापस लाना चाहते हैं जो रूहों से ख़ाली हो चुके हैं और हरकत के बाद साकिन हो चुके हैं। उन्हें तो फ़ख़्र के बजाए इबरत का सामान होना चाहिये था और उनको देखकर इन्सान को इज़्ज़त के बजाय ज़िल्लत की मन्ज़िल में उतरना चाहिये था मगर अफ़सोस के इन लोगों ने उन मुर्दों को चुन्धियाई हुई आंखों से देखा है और उनकी तरफ़ से जेहालत के गढ़े में गिर गए हैं।

(((- यह सिलसिलए तफ़ाख़ुर हर दौर में रहा है और आज भी बरक़रार है के इन्सान सामाने इबरत को वजहे फ़ज़ीलत क़रार दे रहा है और इस तरह मुसलसल वादीए ग़फ़लत में मन्ज़िल से दूरतर होता चला जा रहा है। काश उसे इसक़द्र शऊर होता के आबा व अजदाद की बोसीदा लाशें या क़ब्रें बाइसे इफ़्तेख़ार नहीं हैं। बाइसे इफ़्तेख़ार इन्सान का अपना किरदार है और दर हक़ीक़त किरदार भी इस क़ाबिल नहीं है के उसे सरमायए इफ़्तेख़ार क़रार दिया जा सके। इन्सान के लिये वजहे इफ़्तेख़ार सिर्फ़ एक चीज़ है के इसका मालिक परवरदिगार है जो सारी कायनातत से बालातर है जैसा के मौलाए कायनात ने अपनी मुनाजात में इशारा किया है के ‘‘ख़ुदाया! मेरी इज़्ज़त के लिये यह काफ़ी है के मैं तेरा बन्दा हूँ और मेरे फ़ख़्र के लिये यह काफ़ी है के तू मेरा रब है। अब इसके बाद मेरे लिये किसी शै की कोई हक़ीक़त नहीं है। सिर्फ़ इल्तिजा यह है के जिस तरह तू मेरी मर्ज़ी का ख़ुदा है, उसी तरह मुझे अपनी मर्ज़ी का बन्दा बना ले।’’-)))

उनके बारे में गिरे पड़े मकानों और ख़ाली घरों से दरयाफ़्त किया जाए तो यही जवाब मिलेगा के लोग गुमराही के आलम में ज़ेरे ज़मीन चले गए (और) तुम जेहालत के आालम में इनके पीछे चले जजा रहे हो, इनकी खोपड़ियों को रौन्द रहे हो और उनके जिस्मों पर इमारतें खड़ी कर रहे हो, जो वह छोड़ गए हैं उसी को चर रहे हो और जो वह बरबाद कर गए हैं उसी में सुकूनत पज़ीद हो। तुम्हारे और उनके दरम्यान के दिन तुम्हारे हाल पर रो रहे हैं और तुम्हारी बरबादी का नौहा पढ़ रहे हैं।

यह हैं तुम्हारी मन्ज़िल पर पहले पहुंच जाने वाले और तुम्हारे चष्मों पर पहले वारिद हो जाने वाले। जिनके लिये इज़्ज़त की मन्ज़िलें थीं, फ़ख़्र व मुबाहात की फ़रावानियां थीं, कुछ सलातीने वक़्त थे और कुछ दूसरे दर्जे के मनसबदार, लेकिन सब बरज़ख़ की गहराइयों में राह पैमाई कर रहे हैं। ज़मीन उनके ऊपर मुसल्लत कर दी गई है। उसने इनका गोश्त खा लिया है और ख़ून पी लिया है अब वह क़ब्र की गहराइयों में ऐसे जमा दिये गये हैं जिनमें नमो नहीं है और ऐसे गुम हो गए हैं के ढूंढे नहीं मिल रहे हैं। न हौलनाक मसाएब का विरूद उन्हें ख़ौफ़ज़दा बना सकता है और न बदले हालात उन्हें रन्जीदा कर सकते हैं। न उन्हें ज़लज़लों की परवाह है और न गरज और कड़क की इत्तेलाअ। ऐसे ग़ायब हुए हैं के इनका इन्तेज़ार नहीं किया जा रहा है और ऐसे हाज़िर हैं के सामने नहीं आते हैं। कल सब यकजा थे अब मुन्तशिर हो गए हैं और सब एक दूसरे के क़रीब थे और अब जुदा हो गए हैं। उनके हालात की बेख़बरी और उनके दयार की ख़ामोशी तूले ज़मान और बोअद मकान की बिना पर नहीं है बल्कि उन्हें मौत का वह जाम पिला दिया गया है जिसने उनकी गाोयाई को गूंगेपन में और उनकी समाअत को बहरेपन में और उनकी हरकात को सुकून में तब्दील कर दिया है। उनकी सरसरी तारीफ़ हो सकती है के जैसे नीन्द में बेख़बर पड़े हों के हमसाये  हैं लेकिन एक-दूसरे से मानूस नहीं हैं और अहबाब हैं लेकिन मुलाक़ात नहीं करते हैं। उनके दरम्यान बाहमी तआरूफ़ के रिश्ते बोसीदा हो गए हैं और बिरादरी के असबाब मुन्क़ता हो गए हैं। अब जब मुजतमा होने के बावजूद अकेले हैं और दोस्त होने के बावजूद एक दूसरे को छोड़े हुए हैं। न किसी रात की सुबह से आश्ना हैं और न किसी सुबह की शाम ही पहचानते हैं। दिन व रात में जिस साअत में भी दुनिया से गए हैं वही उनकी अबदी साअत है।

(((;- यह सूरते  हाल किसी सुकून और इतमीनान का इशारा नहीं है बल्कि दर असल इन्सान की मदहोशी और बदहवासी का इज़हार है के साहबे अक़्ल व शऊर भी जमादात की शक्ल इख़्तेयार कर गया है और सूरते हाल यह हो गई है के इधर से जुमला हालात से बेख़बर हो गया है लेकिन उधर के हालात से बेख़बर नहीं है। सुबह व शाम अरवाह के सामने जहन्नुम पेशे नज़र किया जाता है और बेअमल और बदकिरदार इन्सान एक नई मुसीबत से दो चार हो जाता है। दर हक़ीक़त मौलाए कायनात ने इन फ़ोक़रात में मरने वालों के हालात का ज़िक्र नहीं किया है बल्कि ज़िन्दा अफ़राद को इस सूरते हाल से बचाने का इन्तेज़ाम किया है के इन्सान इस अन्जाम से बाख़बर है और चन्द रोज़ा दुनिया के बजाए अबदी आक़ेबत और आखि़रत का इन्तेज़ाम करे जिससे बहरहाल दो चार हाोना है और इससे फ़रार का कोई इमकान नहीं है।-)))

 और दारे आखि़रत के ख़तरात को उससे ज़्यादा देख लिया है और उनको उससे भी कहीं ज़्यादा हौलनाक पाया जितना उन्हें डर था और वहाँ के आसार को उससे अज़ीम देखा जितना के वह अन्दाज़ा लगाते थे। (मोमिनों और काफ़िरों की) मन्ज़िले इन्तेहा को जाए बाज़गश्त दोज़ख़ व जन्नत तक फेला दिया गया है। वह (काफ़िरों के लिये) हर दरजा ख़ौफ़ से बलन्दतर और (मोमिनों के लिये) हर दर्जा उम्मीद से बालातर है, अगर वह बोल सकते होते जब भी देखी हुई चीज़ों के बयान से उनकी ज़बानें गंग हो जातीं अगरचे उनके निशानात मिट चुके हैं और उनकी ख़बरों का सिलसिला क़ता हो चुका है, लेकिन उन्हें देखती और गोशे अक़्ल वह ख़ुर्द उनकी सुनते हैं (यह लोग अगर बोलने के लाएक़ भी हैं तो उन हालात की तौसीफ़ नहीं कर सकते थे जिनका मुशाहेदा कर लिया है और अपनी आंखों से देख लिया है अब अगर इनके आसार गुम भी हो गए हैं और इनकी ख़बरें मुनक़ता भी हो गई हैं तो इबरत की निगाहें बहरहाल उन्हें देख रही हैं) वह बोले मगर नत्क़ व कलाम के तरीक़े पर नहीं बल्कि उन्होंने ज़बाने हाल से कहा शगुफ्ता चेहर बिगड़ गए, नर्म व नाज़ुक बदन मिट्टी में मिल गए और हमने बोसीदा कफ़न पहन रखा है और क़ब्र की तंगी ने हमें आजिज़ कर दिया है। ख़ौफ़ व दहषत का एक-दूसरे से विरसा पाया है और ख़ामोष मन्ज़िलें वीरान हो चुकी हैं जिस्म के महासिन महो हो चुके हैं और जानी-पहचानी सूरतें भी तबदील हो गई हैं। मन्ज़िले वहशत में क़याम तवील हो गया है और किसी कर्ब से राहत की उम्मीद नहीं है और न किसी तंगी में वुसअत का कोई इमकान है। अब अगर तुम अपनी अक़्लों से इनकी तस्वीरकशी करो या तुम से ग़ैब के परदे उठा दिये जाएं और तुम उन्हें इस आलम में देख लो के जब कीड़ों की वजह से उनके कान समाअत को खोकर बहरे हो चुके हैं और उनकी आंखें ख़ाक का सुरमा लगाकर अन्दर को धंस चुकी हैं और उनके मुंह में ज़बानें तलाक़त व रवानी दिखाने के बाद पारा-पारा हो चुकी हैं और सीनों में दिल चैकन्ना रहने के बाद बेहरकत हो चुके हैं और उनके एक-एक अज़ो को नई बोसीदगियों ने तबाह करके बद हैसियत बना दिया है और इस हालत में के वह (हर मुसीबत सहने के लिये) बिला मज़ाहमत आमादा हैं। उनकी तरफ़ आफ़तों का रास्ता हमवार कर दिया है, न कोई हाथ है जो उनका बचाव करे और न (बख़्शने वाले) दिल हैं जो बेचैन हो जाएं अगर तुम अपनी अक़्लों में उनका नक़्शा जमाओ या यह के तुम्हारे सामने से उन पर पड़ा हुआ परदा हटा दिया जाए तो अलबत्ता तुम उनके दिलों के अन्दोह और आंखों में पड़े हुए ख़स व ख़ाशाक को देखोगे के उन पर शिद्दत व सख़्ती की ऐसी हालत है के वह बलन्दी नहीं और ऐसी मुसीबत व जान गाही है के हटने का नाम नहीं लेती

उफ! यह ज़मीन कितने अज़ीज़तरीन बदन और हसीनतरीन रंग खा गई (जिनको दौलत व राहत की ग़िज़ा मिल रही थी) जो रंज की घड़ियों में भी मसर्रत अंगेज़ चेहरों से दिल बहलाते थे, अगर कोई मुसीबत उन पर आ पड़ती थी तो अपने ऐष की ताज़गियों पर ललचाए रहने और खेल तफ़रीह पर फ़रेफ़्ता होने की वजह से ख़ुश व क़त्तियों के सहारे ढूंढते थे इसी दौरान में के वह ग़ाफ़िल व मदहोश करने वाली ज़िन्दगी की छांव में दुनिया को देख कर हस रहे थे और दुनिया उन्हें देखकर क़हक़हे लगा रही थी (और अपने लहू व लाब पर फ़रेक़्ता होने की बिना पर तसल्ली का सामान फ़राहम कर लिया करते थे। यह अभी ग़फ़लत में डाल देने वाले ऐश के सरमायए दुनिया को देखकर मुस्करा रहे थे और दुनिया इन्हें देखकर हंस रही थी)

(((-अमीरूल मोमेनीन (अ0) की तस्वीरकशी पर एक लफ़्ज़ के भी इज़ाफ़े की गुन्जाइश नहीं है और अबूतुराब से बेहतर ज़ेरे ज़मीन का नक़्शा कौन खींच सकता है। बात सिर्फ़ यह है के इन्सान इस संगीन सूरते हाल का अन्दाज़ा करे और इस तसवीर को अपनी निगाहे अक़्ल व बसीरत में मुजस्सम बनाए ताके उसे अन्दाज़ा हो के इस दुनिया की हैसियत और औक़ात क्या है और इसका अन्जाम क्या होने वाला है। हक़ीक़ते अम्र यह है के ज़ेरे ज़मीन ख़ाक का ढेर बन जाने वाले कैसे कैसी ज़िन्दगियां गुज़ार गए हैं और किस किस तरह की राहत पसन्दियों से गुज़र चुके हैं। लेकिन आज मौत उनकी हैसियत का इक़रार करने के लिये तैयार नहीं है और क़ब्र उनके किसी क़िस्म के एहतेराम की क़ाएल नहीं है। यह तो सिर्फ़ ईमान व किरदार या साहबे क़ब्र व बारगाह के जवार का असर है के इन्सान फ़िशारे क़ब्र और बोसीदगी जिस्म से महफ़ूज़ रह जाए। वरना ज़मीन अपने टुकड़े को असल से मिला देने में किसी तरह के तकल्लुफ़ से काम नहीं लेती है।-)))

के अचानक ज़माने ने उन्हें कांटों की तरह रौन्द दिया और उनके सारे ज़ोर तोड़ दिये और क़रीब ही से मौत की नज़रें उन पर पड़ने लगीं और ऐसा ग़म व अन्दोह उन पर तारी हुआ के जिससे वह आशना न थे और ऐसे अन्दरूनी क़लक़ में मुब्तिला हुए के जिससे कभी साबेक़ा न पड़ा था और इस हालत में के वह सेहत से बहुत ज़्यादा मानूस थे, उनमें मर्ज़ की कमज़ोरियां पैदा हो गईं तो अब उन्होंने अपनी चीज़ों की तरफ़ रूजू किया जिनका तबीबों ने उन्हें आदी बना रखा था के गर्मी के ज़ोर को सर्द दवाओं से फ़रो किया जाए और सर्दी को गर्म दवाओं से हटाया जाए। मगर सर्द दवाओं ने गर्मी को बुझाने के बाद और भड़का दिया और गर्म दवाओं ने ठण्डक को हटाने के बजाय इसका जोश और बढ़ा दिया और न इन तबीअतों में मख़लूत होने वाली चीज़ों उनके मिज़ाज नुक़्ताए एतदाल पर आए बल्कि इन चीज़ों ने हर अज़ो माऊफ़ का आज़ार और बढ़ा दिया। यहां तक के वह चारागर सुस्त पड़ गए, तीमारदार (मायूस होकर) सुस्त हो गए और इलाज करने वाले ग़फ़लत बरतने लगे, घरवाले मर्ज़ की हालत बयान करने से आजिज़ आ गए और मिज़ाज पुरसी करने वालों के जवाब से ख़ामोशी इख़्तेयार कर ली और उससे छुपाते हुए इस अन्दोहनाक ख़बर के बारे में इख़्तेलाफ़ राए करने लगे। एक कहने वाला यह कहता था के इसकी हालत जो है सो ज़ाहिर है और एक सेहत व तन्दरूस्ती के पलट आने की उम्मीद दिलाता था और एक इसकी (होने वाली) मौत पर उन्हें सब्र की तलक़ीन करना और इससे पहले गुज़र जाने वालों की मुसीबतें उन्हें याद दिलाता था। इसी असना में के वह दुनिया से जाने और दोस्तों को छोड़ने के लिये पर तोल रहा था के नागाह गुलूगीर फनदों में से एक ऐसा फनदा उसे लगा के उसके होश व हवास पाशाने व परेशान हो गए और ज़बान की रूतूबत (तरी) ख़ुश्की में तब्दील हो गई और कितने ही मुबहम सवालात थे के जो अब वह जानता था मगर बयान करने से आजिज़ हो गया और कितनी ही दिल सोज़ सदाएं उसके कान से टकराईं के जिनके सुनने से बहरा हो गया और वह आवाज़ या किसी ऐसे बुज़ुर्ग की होती थी जिसका यह बड़ा एहतेराम करता था, या किसी ऐसे ख़ुद रसाल की होती थी जिस पर यह मेहरबान व शफ़क़ था। मौत की सख़्ितयां इतनी हैं के मुश्किल है के दाएरए बयान में आ सकें या अहले दुनिया की अक़्लों के अन्दाज़े पर पूरी उतर सकें।

(((-हाए वह बेकसी का आलम के न मरने वाला दर्दे दिल की तर्जुमानी कर सकता है और न रह जाने वाले इसके किसी दर्द का इलाज कर सकते हैं। जबके दोनों आमने-सामने ज़िन्दा मौजूद हैं तो इसके बाद किसी से क्या तवक़्क़ो रखी जाए जब एक मौत की आग़ोश में सो जाएगा और दूसरा कन्जे लहद के हालात से भी बेख़बर हो जाएगा और उसे मरने वाले के हालात की भी इत्तेलाअ नहीं होगी। क्या यह सूरते हाल इस अम्र की दावत नहीं देती है के इन्सान इस दुनिया से इबरत हासिल करे और अहले दुनिया पर एतमाद करने के बजाय अपने ईमान व किरदार और औलियाए इलाही की नुसरत व हिमायत हासिल करने पर तवज्जो दे के इसके अलावा कोई सहारा नहीं है।)))