True Islam– Shia, Shiyat (SHEEYAT)

aap sabki duaao ka talib- Haider Alam Rizvi

 32- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा

(जिसमें ज़माने के ज़ुल्म का तज़किरा है और लोगों की पांच क़िस्मों को बयान किया गया है औश्र इसके बाद ज़ोहद की दावत दी गई है)

अय्योहन्नास! हम एक ऐसे ज़माने में पैदा हुए हैं जो सरकष और नाषुक्रा है। यहाँ नेक किरदार बुरा समझा जाता है और ज़ालिम अपने ज़ुल्म में बढ़ता ही जा रहा है। न हम इल्म से कोई फ़ायदा उठाते हैं और न जिन चीज़ों से नावाक़िफ़ हैं उनके बारे में सवाल करते हैं और न किसी मुसीबत का उस वक़्त तक एहसास करते हैं जब तक वह नाज़िल न हो जाए। लोग इस ज़माने में चार तरह के हैं। बाज़ वह हैं जिन्हें रूए ज़मीन पर फ़साद करने से सिर्फ उनके नफ़्स की कमज़ोरी और उनके असलहे की धार की कुन्दी और उनके असबाब की कमी ने रोक रखा है। बाज़ वह हैं जो तलवार खींचते हुए अपने शर का ऐलान कर रहे हैं और अपने सवार प्यादे को जमा कर रहे हैं। अपने नफ़्स को माले दुनिया के हुसूल और लष्कर की क़यादत या मिम्बर की बलन्दी पर उरूज के लिये वक़्फ़ कर दिया है और दीन को बरबाद कर दिया है और यह बदतरीन तिजारत है के तुम दुनिया को अपने नफ़्स की क़ीमत बना दो या अज्र आखि़रत का बदल क़रार दे दो। बाज़ वह हैं जो दुनिया को आखि़रत के आमाल के ज़रिये हासिल करना चाहते हैं और आखि़रत को दुनिया के ज़रिये नहीं हासिल करना चाहते हैं, उन्होंने निगाहों को पहचान लिया है। क़दम नाप-नाप कर रखते हैं। दामन को समेट लिया है और अपने नफ़्स को गोया अमानतदारी के लिये आरास्ता कर लिया है और परवरदिगार की परदेदारी को मासियत का ज़रिया बनाए हुए हैं। बाज़ वह हैं जिन्हें हुसूले इक़्तेदार से नफ़्स की कमज़ोरी और असबाब की नाबूदी ने दूर रखा है और जब हालात ने साज़गारी का सहारा नहीं दिया तो इसी का नाम क़नाअत रख लिया है। यह लोग अहले ज़ोहद का लिबास ज़ेबे तन किये हुए हैं जबके इनकी शाम ज़ाहिदाना है और न सुबह। (पांचवी क़िस्म)- इसके बाद कुछ लोग बाक़ी रह गये हैं जिनकी निगाहों को बाज़गष्त की याद ने झुका दिया है और इनके आंसुओं को ख़ौफ़े महषर ने जारी कर दिया है। इनमें बाज़ आवारा वतन और दौरे इफ़तादा हैं और बाज़ ख़ौफ़ज़दा और गोषानषीन हैं। बाज़ की ज़बानों पर मोहर लगी हुई है और बाज़ इख़लास के साथ महवे दुआ हैं और दर्द रसीदा की तरह रन्जीदा हैं। उन्हें ख़ौफ़े हुक्काम ने गुमनामी की मन्ज़िल तक पहुँचा दिया है।

((( इन्सानी मुआषरे की क्या सच्ची तस्वीर है, जब चाहिये अपने घर, अपने महल्ले, अपने शहर, अपने मुल्क पर एक निगाह डाल लीजिये। इन चारों क़िस्में बयकवक़्त नज़र आ जाएंगी। वह शरीफ़ भी मिल जाएंगे जो सिर्फ़ हालात की तंगी की बिना पर शरीफ़ बने हुए हैं वरना बस चल जाता तो बीवी बच्चों पर भी ज़ुल्म करने से बाज़ नहीं आते। व्ह तीस मार ख़ाँ भी मिल जाएंगे जिनका कुल शरफ़ फ़साद फ़िल अर्ज़ है और किसी को अपनी अहमियत व अज़मत का ज़रिया बनाए हुए हैं के हमने भरी महफ़िल में फ़लाँ को कह दिया और फ़लाँ अख़बार में फ़लाँ के खि़लाफ़ यह मज़मून लिख दिया या अदालत में यह फ़र्ज़ी मुक़दमा दायर कर दिया। वह मुक़द्दस भी मिल जाएंगे जिनका तक़द्दुस ही इनके फ़िस्क़ व फ़जूर का ज़रिया है। दुआ-तावीज़ के नाम पर नामहरमों से खि़लवत इख़्तेयार करते हैं और औलियाअल्लाह से क़रीबतर बनाने के लिये अपने से क़रीबतर बना लेते हैं। चादरें ओढ़ाकर दुआएं मंगवाते हैं और तन्हाई में बुलाकर जादू उतारते हैं। वह फाक़ामस्त भी मिल जाएंगे जिन्हें हालात की मजबूरी ने क़नाअत पर आमादा कर दिया है वरना इनकी सही हालत का अन्दाज़ा दूसरों के दस्तरख़्वानों पर बख़ूबी लगाया जा सकता है। तलाष है इन्सानियत को इस पांचवीं क़िस्म की जो सिवाए पन्जेतने पाक के और किसी के आस्ताने पर नज़र नहीं आती है। काष दुनिया को अब भी होष आ जाए।)))

और बेचारगी ने इन्हें घेर लिया है, गोया वह एक खारे समन्दर के अन्दर ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं जहां मुंह बन्द हैं और दिल ज़ख़्मी है। इन्होंने इस क़द्र मौग़ता किया है के थक गये हैं और वह इस क़द्र दबाए गए हैं के बाला आख़िर दब गये हैं और इस क़द्र मारे गये हैं के इनकी तादाद भी कम हो गयी है। लेहाज़ा अब दुनिया को तुम्हारी निगाहों में कीकर के छिलकों और ऊवन के रेज़ों से भी ज़्यादा पस्त होना चाहिये, और अपने पहलेवालों से इबरत हासिल करनी चाहिये। क़ब्ल इसके के बाद वाले तुम्हारे अन्जाम से इबरत हासिल करें। इस दुनिया को नज़रअन्दाज़ कर दो, यह बहुत ज़लील है यह उनके काम नहीं आई है जो तुमसे ज़्यादा इससे दिल लगाने वाले थे। सय्यद रज़ी- बाज़ जाहिलों ने इस ख़ुत्बे को माविया की तरफ़ मन्सूब कर दिया है जबके बिला शक यह अमीरूल मोमेनीन का कलाम है और भला क्या राबेता है सोने और मिट्टी में और शीरीं और शूर में इस हक़ीक़त की निषानदेही फ़न्ने बलाग़त के माहिर और बा-बसीरत तनक़ीदी नज़र रखने वाले आलिम अमरू बिन बहरल जाख़त ने भी की है जब इस ख़ुत्बे को ‘‘अलबयान व अलतबययन’’ में नक़्ल करने के बाद यह तबसेरा किया है के बाज़ लोगों ने इसे माविया की तरफ़ मन्सूब कर दिया है हालांके यह हज़रत अली (अ0) के अन्दाज़े बयान से ज़्यादा मिलता जुलता है के आप ही इस तरह लोगों के एक़साम, मज़ाहेब और क़हर व ज़िल्लत और तक़या व ख़ौफ़ का तज़केरा किया करते थे वरना माविया को कब अपनी गुफ़्तू में ज़ाहिदों का अन्दाज़ या आबिदों का तरीक़ा इख़्तेयार करते देखा गया है।

33- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा

(अहले बसरा से जेहाद के लिये निकलते वक़्त, जिसमें आपने रसूलों की बाअसत की हिकमत और फिर अपनी फ़ज़ीलत और ख़वारिज की रज़ीलत का ज़िक्र किया है)

अब्दुल्लाह बिन अब्बास का बयान है के मैं मक़ाम ज़ीक़ार में अमीरूल मोमेनीन (अ0) की खि़दमत में हाज़िर हुआ जब आप अपनी नालैन की मरम्मत कर रहे थे। आपने फ़रमाया इब्ने अब्बास! इन जूतियों की क्या क़ीमत है? मैंने अर्ज़ की कुछ नहीं! फ़रमाया के ख़ुदा की क़सम यह मुझे तुम्हारी हुकूमत से ज़्यादा अज़ीज़ हैं मगर यह के हुकूमत के ज़रिये मैं किसी हक़ को क़ायम कर सकूँ या किसी बातिल को दफ़ा कर सकूँ। इसके बाद लोगों के दरमियान आकर ख़ुत्बा इरषाद फ़रमाया- अल्लाह ने हज़रत मोहम्मद (स0) को उस वक़्त मबऊस किया जब अरबों में कोई न आसमानी किताब पढ़ना जानता था और न नबूवत का दावेदार था। आपने लोगों को खींच कर उनके मुक़ाम तक पहुँचाया और उन्हें मन्ज़िले निजात से आषना बना दिया। यहाँ तक के इनकी कजी दुरूस्त हो गई और इनके हालात इसतवार हो गये।

((( अमीरूल मोमेनीन (अ0) के ज़ेरे नज़र ख़ुत्बे की फ़साहत व बलाग़त अपने मक़ाम पर है। आपका यह एक कलमा ही आपकी ज़िन्दगी और आपके नज़रियात का अन्दाज़ा करने के लिये काफ़ी हैं। ख़ुसूसियत के साथ इस सूरतेहाल को निगाह में रखने के बाद के आप जंगे जमल के मौक़े पर बसरा की तरफ़ जा रहे थे और हज़रत आइषा आपके खि़लाफ़ जंग की आग उस प्रोपगन्डा के साथ भड़का रही थीं के आपने हुकूमत व इक़तेदार की लालच में उसमान को क़त्ल करा दिया है और तख़्ते खि़लाफ़त पर क़ाबिज़ हो गए हैं। ज़्ारूरत थी के आप तख़्ते हुकूमत के बारे में अपने नज़रियात का एलान कर देते। लेकिन यह काम ख़ुत्बे की शक्ल में होता तो इसकी अमली शक्ल का समझना हर इन्सान के बस का काम नहीं था लेहाज़ा क़ुदरत ने एक ग़ैबी ज़रिया फ़राहम कर दिया जहाँ आप अपनी जूतियों की मरम्मत कर रहे थे और इब्ने अब्बास सामने आ गए। सूरतेहाल ने पहले तो इस अम्र की वज़ाहत की के आप तख़्ते खि़लाफ़त पर ‘‘क़ाबिज़’’ होने के बाद भी ऐसी ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे के आपके पास सही व सालिम जूतियाँ भी नहीं थीं और फिर षिकस्ता और बोसीदा जूतियों की मरम्मत भी किसी सहाबी या मुलाज़िम से नहीं कराते थे बल्कि यह काम भी ख़ुद ही अन्जाम दिया करते थे। ज़ाहिर है के ऐसे शख़्स को हुकूमत की क्या तमअ हो सकती है और उसे हुकूमत से क्या सुकून व आराम मिल सकता है। इसके बाद आपने दो बुनियाद नुकात का एलान फ़रमाया- 1. मेरी निगाह में हुकूमत की क़ीमत जूतियों के बराबर भी नहीं है के जूतियां तो कम से कम मेरे क़दमों में रहती हैं और तख़्ते हुकूमत तो ज़ालिमों और बेईमानों को भी हासिल हो जाता है। 2. मेरी निगाह में हुकूमत का मसरफ़ सिर्फ़ हक़ का क़याम और बातिल का इज़ाला है वरना इसके बग़ैर हुकूमत का कोई जवाज़ नहीं है।)))

आगाह हो जाओ के ब ख़ुदा क़सम मैं इस सूरते हाल के तबदील करने वालों में शामिल था यहाँतक के हालात मुकम्मल तौर पर तब्दील हो गए और मैं न कमज़ोर हुआ और न ख़ौफ़ज़दा हुआ और आज भी मेरा यह सफ़र वैसे ही मक़ासिद के लिये है। मैं बातिल के षिकम को चाक करके इसके पहलू से वह हक़ निकाल लूंगा जिसे इसने मज़ालिम की तहों में छिपा दिया है। मेरा क़ुरैष से क्या ताल्लुक़ है, मैंने कल इनसे कुफ्र की बिना पर जेहाद किया था और आज फ़ित्ना और गुमराही की बिना पर जेहाद करूंगा। मैं इनका पुराना मद्दे मुक़ाबिल हूँ और आज भी इनके मुक़ाबले पर तैयार हूँ। ख़ुदा की क़सम क़ुरैष को हमसे कोई अदावत नहीं है मगर यह के परवरदिगार ने हमें मुन्तख़ब क़रार दिया है और हमने उनको अपनी जमाअत में दाखि़ल करना चाहा तो वह इन अष्आर के मिस्दाक़ हो गए। हमारी जाँ की क़सम यह शराबे नाबे सबाह यह चर्ब चर्ब ग़िज़ाएं हमारा सदक़ा हैं हमीं ने तुमको यह सारी बलन्दियां दी हैं वगरना तेग़ो सिनां बस हमारा हिस्सा हैं।

(((इस मक़ाम पर यह ख़याल न किया जाए के ऐसे अन्दाज़े गुफ़्तगू से अवामुन्नास में मज़ीद नख़वत पैदा हो जाती है और इनमें काम करने का जज़्बा बिल्कुल मुरदा हो जाता है और अगर वाक़ेअन इमाम अलैहिस्सलाम इसी क़द्र आजिज़ आ गए थे तो फिर बार-बार दुहराने की क्या ज़रूरत थी। उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया होता। जो अन्जाम होने वाला था हो जाता और बाला आखि़र लोग अपने कीफ़र किरदार को पहुँच जाते? इसलिये के एक जज़्बाती मष्विरा तो हो सकता है मुन्तक़ी गुफ़्तगू नहीं हो सकती है। उकताहट और नाराज़गी एक फ़ितरी रद्दे अमल है जो अम्रे बिलमारूफ़ की मन्ज़िल में फ़रीज़ा भी बन जाता है। लेकिन इसके बाद भी एतमामे हुज्जत का फ़रीज़ा बहरहाल बाक़ी रह जाता है। फ़िर इमाम (अ0) की निगाहें इस मुस्तक़बिल को भी देख रही थीं जहां मुसलसल हिदायत के पेषेनज़र चन्द अफ़राद ज़रूर पैदा हो जाते हैं और उस वक़्त भी पैदा हो गए थे यह और बात है के क़ज़ा व क़द्र ने साथ नहीं दिया और जेहाद मुकम्मल नहीं हो सका। इसके अलावा यह नुक्ता भी क़ाबिले तवज्जो है के अगर अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने सुकूत इख़्तेयार कर लिया होता तो दुष्मन इसे रज़ामन्दी और बैअत की अलामत बना लेते और मुख़्लेसीन अपनी कोताही अमल का बहाना क़रार दे लेते और इस्लाम की रूह अमल और तहरीक दुनियादारी मुरदा होकर रह जाती।)))

34-आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा

(जिसमें ख़वारिज के क़िस्से के बाद लोगोंं को अहले शाम से जेहाद के लिये आमादा किया गया है और उनके हालात पर अफ़सोस का इज़हार करते हुए इन्हें नसीहत की गई है)

हैफ़ है तुम्हारे हाल पर, मैं तुम्हें मलामत करते करते थक गया। क्या तुम लोग वाक़ेअन आख़ेरत के एवज़ ज़िन्दगानी दुनिया पर राज़ी हो गए हो और तुमने ज़िल्लत को इज़्ज़त का बदल समझ लिया है? के जब मैं तुम्हें दुष्मन से जेहाद की दावत देता हूँ तो तुम आँखें फिराने लगते हो जैसे मौत की बेहोषी तारी हो और ग़फ़लत के नषे में मुब्तिला हो। तुम पर जैसे मेरी गुफ़्तगू के दरवाज़े बन्द हो गए हैं के तुम गुमराह होते जा रहे हो और तुम्हारे दिलों पर दीवानगी का असर हो गया है के तुम्हारी समझ ही में कुछ नहीं आ रहा है। तुम कभी मेरे लिये क़ाबिले एतमाद नहीं हो सकते हो और न ऐसा सुतून हो जिस पर भरोसा किया जासके और न इज़्ज़त के वसाएल हो जिसकी ज़रूरत महसूस की जा सके तुम तो उन ऊंटों जैसे हो जिनके चरवाहे गुम हो जाएं के जब एक तरफ़ से जमा किये जाते हैं तो दूसरी तरफ़ से भड़क जाते हैं। ख़ुदा की क़सम! तुम बदतरीन अफ़राद हो जिनके ज़रिये आतिषे जंग को भड़काया जा सके। तुम्हारे साथ मक्र किया जाता है और तुम कोई तद्बीर भी नहीं करते हो। तुम्हारे इलाक़े कम होते जा रहे हैं और तुम्हें ग़ुस्सा भी नहीं आता है। दुष्मन तुम्हारी तरफ़ से ग़ाफ़िल नहीं है मगर तुम ग़फ़लत की नींद सो रहे हो। ख़ुदा की क़सम सुस्ती बरतने वाले हमेषा मग़लूब हो जाते हैं और ब-ख़ुदा मैं तुम्हारे बारे में यही ख़याल रखता हूँ के अगर जंग ने ज़ोर पकड़ लिया और मौत का बाज़ार गर्म हो गया तो तुम फ़रज़न्दे अबूतालिब से यूँही अलग हो जाओगे जिस तरह जिस्म से सर अलग हो जाता है।(((यह दयानतदारी और ईमानदारी की अज़ीमतरीन मिसाल है के कायनात का अमीर मुसलमानों का हाकिम, इस्लाम का ज़िम्मेदार क़ौम के सामने खड़े होकर इस हक़ीक़त का एलान कर रहा है के जिस तरह मेरा हक़ तुम्हारे ज़िम्मे है इसी तरह तुम्हारा हक़ मेरे ज़िम्मे भी है। इस्लाम में हाकिम हुक़ूक़ुल इबाद से बलन्दतर नहीं होता है और न उसे क़ानूने इलाही के मुक़ाबले में मुतलक़ुलअनान क़रार दिया जा सकता है। इसके बाद दूसरी एहतियात यह है के पहले अवाम के हुक़ूक़ को अदा करने का ज़िक्र किया। इसके बाद अपने हुक़ूक़ का मुतालबा किया और हुक़ूक़ के बयान में भी अवाम के हुक़ूक़ को अपने हक़ के मुक़ाबले में ज़्यादा अहमियत दी। अपना हक़ सिर्फ़ यह है के क़ौम मुख़लिस रहे और बैयत का हक़ अदा करती रहे और एहकाम की इताअत करती रहे जबके यह किसी हाकिम के इम्तेयाज़ी हुक़ूक़ नहीं हैं बल्के मज़हब के बुनियादी फ़राएज़ हैं। इख़लास व नसीहत हर शख़्स का बुनियादी फ़रीज़ा है। बैअत की पाबन्दी मुआहेदा की पाबन्दी और तक़ाज़ाए इन्सानियत है। एहकाम की इताअत एहकामे इलाहिया की इताअत है और यही ऐन तक़ाज़ाए इस्लाम है। इसके बरखि़लाफ़ अपने ऊपर जिन हुक़ूक़ का ज़िक्र किया गया है वह इस्लाम के बुनियादी फ़राएज़ में शामिल नहीं हैं बल्कि एक हाकिम की ज़िम्मेदारी के शोबे हैं के वह लोगों को तालीम देकर इनकी जेहालत का इलाज करे और उन्हें महज़ब बनाकर अमल की दावत दे और फिर बराबर नसीहत करता रहे और किसी आन भी इनके मसालेह व मनाफ़ेअ से ग़ाफ़िल न होने पाए।)))

ख़ुदा की क़सम अगर कोई शख़्स अपने दुष्मन को इतना क़ाबू दे देता है के वह इसका गोष्त उतार ले और हड्डी तोड़ डाले और खाल के टुकड़े- टुकड़े कर दे तो ऐसा शख़्स आजिज़ी की आखि़री सरहद पर है और इसका वह दिल इन्तेहाई कमज़ोर है जो इसके पहलूओं के दरम्यान है। -2- तुम चाहो तो ऐसे ही हो जाओ लेकिन मैं ख़ुदा गवाह है के इस नौबत के आने से पहले वह तलवार चलाऊंगा के खोपड़ियां टुकड़े- टुकड़े होकर उड़ती दिखाई देंगी और हाथ पैर कट कर गिरते नज़र आएंगे। इसके बाद ख़ुदा जो चाहेगा वह करेगा। अय्योहन्नास एक हक़ तुम्हारे ज़िम्मे है और एक हक़ तुम्हारा मेरे ज़िम्मे है। तुम्हारा हक़ मेरे ज़िम्मे यह है के मैं तुम्हें नसीहत कर दूं और बैतुलमाल का माल तुम्हारे हवाले कर दूँ और तुम्हें तालीम दूँ ताके तुम जाहिल न रह जाओ और अदब सिखाऊं ताके बाअमल हो जाऊँ और मेरा हक़ तुम्हारे ऊपर यह है के बैयत का हक़ अदा करो और हाज़िर व ग़ाएब हर हाल में ख़ैर ख़्वाह रहो। जब पुकारूं तो लब्बैक कहो और जब हुक्म दूँ तो इताअत करो।

35- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा

(जब तहकीम के बाद इसके नतीजे की इत्तेला दी गई तो आपने हम्दो सनाए इलाही के बाद इस बलाए का सबब बयान फ़रमाया)

हर हाल में ख़ुदा का शुक्र है चाहिये ज़माना कोई बड़ी मुसीबत क्यों न ले आए और हादेसात कितने ही अज़ीम क्यों न हो जाएं। और मैं गवाही देता हूँ के वह ख़ुदा एक है, इसका कोई शरीक नहीं है और इसके साथ कोई दूसरा माबूद नहीं है और हज़रत मोहम्मद (स0) इसके बन्दे और रसूल हैं (ख़ुदा की रहमत इन पर और इनकी आल (अ0) पर)

अम्माबाद! (याद रखो) के नासेह शफ़ीक़ और आलिमे तजुरबेकार की नाफ़रमानी हमेषा बाइसे हसरत और मोजब निदामत हुआ करती है। मैंने तुम्हें तहकीम के बारे में अपनी राय से बाख़बर कर दिया था और अपनी क़ीमती राय का निचोड़ बयान कर दिया था लेकिन ऐ काष ‘‘क़सीर’’ के हुक्म की इताअत की जाती। तुमने तो मेरी इस तरह मुख़ालफ़त की जिस तरह बदतरीन मुख़ालफ़त और अहदे षिकन नाफ़रमान किया करते हैं यहाँ तक के नसीहत करने वाला ख़ुद भी शुबहा में पड़ जाए के किसको नसीहत कर दी और चक़माक़ ने शोले भड़काना बन्द कर दिये। अब हमारा और तुम्हारा वही हाल हुआ है जो बनी हवाज़न के शायर ने कहा थाः ‘‘मैंने तुमको अपनी बात मक़ामे मनारेजुललेवा में बता दी थी, लेकिन तुमने इसकी हक़ीक़त को दूसरे दिन की सुबह ही को पहचाना’’

36- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा   (अहले नहरवान को अन्जामकार से डराने के सिलसिले में)

मैं तुम्हें बाख़बर किये देता हूँ के इस नहर के मोड़ों पर और इस नषेब की हमवार ज़मीनों पर पड़े दिखाई दोगे और तुम्हारे पास परवरदिगार की तरफ़ से कोई वाज़ेअ दलील और रौषन हुज्जत न होगी। तुम्हारे घरों ने तुम्हें निकाल बाहर कर दिया और क़ज़ा व क़द्र ने तुम्हें गिरफ़्तार कर लिया। मैं तुम्हें इस तहकीम से मना कर रहा था लेकिन तुमने अहदषिकन दुष्मनों की तरह मेरी मुख़ालेफ़त की यहाँतक के मैंने अपनी राय को छोड़कर मजबूरन तुम्हारी बात को तस्लीम कर लिया मगर तुम दिमाग़ के हल्के और अक़्ल के अहमक़ निकले। ख़ुदा तुम्हारा बुरा करे। मैंने तो तुम्हें किसी मुसीबत में नहीं डाला है और तुम्हारे लिये कोई नुक़सान नहीं चाहा है।

((( सूरते हाल यह है के जंगे सिफ़फ़ीन के इख़्तेताम के क़रीब जब अम्र व आस के मष्विरे से माविया ने नैज़ों पर क़ुरान बलन्द कर दिये और क़ौम ने जंग रोकने का इरादा कर लिया तो हज़रत ने मुतनब्बेह किया के सिर्फ़ मक्कारी है। इस क़ौम का क़ुरान से कोई ताल्लुक़ नहीं है। लेकिन क़ौम ने इस हद तक इसरार किया के अगर आप क़ुरान के फ़ैसले को न मानेंगे तो हम आपको क़त्ल कर देंगे या गिरफ़्तार करके माविया के हवाले कर देंगे। ज़ाहिर है के इसके नताएज इन्तेहाई बदतर और संगीन थे लेहाज़ा आपने अपनी राय से क़ता नज़र करके इस बात को तसलीम कर लिया मगर शर्त यही रखी के फ़ैसला किताब व सुन्नत ही के ज़रिये होगा। ममला रफ़ा दफ़ा हो गया लेकिन फ़ैसले के वक़्त माविया के नुमाइन्दे अम्र व आस ने हज़रत अली (अ0) की तरफ़ के नुमाइन्दे अबू मूसा अषअरी को धोका दे दिया और उसने हज़रत अली (अ0) के माज़ूल करने का एलान कर दिया जिसके बाद अम्र व आस ने माविया को नामज़द कर दिया और इसकी हुकूमत मुसल्लम हो गई। हज़रत अली (अ0) के नाम नेहाद असहाब को अपनी हिमाक़त का अन्दाज़ा हुआ और शर्मिन्दगी को मिटाने के लिये उलटा इलज़ाम लगाना शुरू कर दिया के आपने इस तहकीम को क्यों मंज़ूर किया था और ख़ुदा के अलावा किसी को हुक्म क्यों तस्लीम किया था। आप काफ़िर हो गए हैं और आपसे जंग, वाजिब है और यह कहकर मक़ाम हरोरा पर लष्कर जमा करना शुरू कर दिया। उधर हज़रत शाम के मुक़ाबले की तैयारी कर रहे थे लेकिन जब इन ज़ालिमों की शरारत हद से आगे बढ़ गई तो आपने अबू अयूब अन्सारी को फ़हमाइष के लिये भेजा। इनकी तक़रीर का यह असर हुआ के बारा हज़ार में से अक्सरीयत कूफ़े चली गई, या ग़ैर जानिबदार हो गई या हज़रत के साथ आ गई और सिर्फ़ दो तीन हज़ार ख़वारिज रह गए जिनसे मुक़ाबला हुआ तो इस क़यामत का हुआ के सिर्फ़ नौ आदमी बचे। बाक़ी सब फ़िन्नार हो गए और हज़रत के लष्कर से सिर्फ़ आठ अफ़राद शहीद हुए वाक़ेया 9 सफ़र 538 हि0 को पेष आया।)))

37- आपका इरषादे गिरामी 
(जो बमन्ज़िलए ख़ुत्बा है और इसमें नहरवान के वाक़ेए के बाद आपने अपने फ़ज़ाएल और कारनामों का तज़किरा किया है।)

मैंने उस वक़्त अपनी ज़िम्मेदारियों के साथ क़याम किया जब सब नाकाम हो गए थे और उस वक़्त सर उठाया जब सब गोषों में छुपे हुए थे और उस वक़्त बोला जब सब गूंगे हो गए थे और उस वक़्त नूरे ख़ुदा के सहारे आगे बढ़ा जब सब ठहरे हुए थे। मेरी आवाज़ सबसे धीमी थी लेकिन मेरे क़दम सबसे आगे थे। मैंने अनान हुकूमत संभाली तो इसमें क़ूवते परवाज़ पैदा हो गई और मेंै तनो तन्हा इस मैदान में बाज़ी ले गया। मेरा सेबात पहाड़ों जैसा था जिन्हें न तेज़ हवाएं हिला सकती थीं और न आंधियां हटा सकती थीं। न किसी के लिये मेरे किरदार में तान-ओ-तन्ज़ की गुन्जाइष थी और न कोई ऐब लगा सकता था। याद रखो के तुम्हारा ज़लील मेरी निगाह में अज़ीज़ है यहां तक के इसका हक़ दिलवा दूँ और तुम्हारा अज़ीज़ मेरी निगाह में ज़लील है यहाँ तक के इससे हक़ ले लूँ। मैं क़ज़ाए इलाही पर राज़ी हूँ और उसके हुक्म के सामने सरापा तस्लीम हूँ। क्या तुम्हारा ख़्याल है के मैं रसूले अकरम (स0) के बारे में कोई ग़लत बयानी कर सकता हूँ जबके सबसे पहले मैंने आपकी तसदीक़ की है तो अब सबसे पहले झूठ बोलने वाला नहीं हो सकता हूँ। मैंने अपने मुआमले में ग़ौर किया तो मेरे लिये इताअते रसूल (स0) का मरहला बैयत पर मुक़द्दम था और मेरी गरदन में हज़रत के ओहद का तौक़ पहले से पड़ा हुआ था।

38- आपका इरषादे गिरामी

(जिसमें शुबह की वजहे तसमिया बयान की गई है और लोगों के हालात का ज़िक्र किया गया है।) 

यक़ीनन शुबह को शुबह इसीलिये कहा जाता है के वह हक़ से मुषाबेह होता है। इस मौक़े पर औलियाअल्लाह के लिये यक़ीन की रोषनी होती है और सिम्त हिदायत की रहनुमाई। लेकिन दुष्मनाने ख़ुदा की दावत गुमराही और रहनुमा बे बसीरती होती है। याद रखो के मौत से डरने वाला मौत से बच नहीं सकता है और बक़ा का तलबगार बक़ाए दवाम पा नहीं सकता है।

39- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा

(जो माविया के सरदारे लष्कर नामान बिन बषीर के ऐनलतमर पर हमले के वक़्त इरशाद फ़रमाया और लोगों को अपनी नुसरत पर आमादा किया)

मैं ऐसे अफ़राद में मुब्तिला हो गया हूँ जिन्हें हुक्म देता हूँ तो इताअत नहीं करते हैं और बुलाता हूँ तो लब्बैक नहीं कहते हैं। ख़ुदा तुम्हारा बुरा करे, अपने परवरदिगार की मदद करने में किस चीज़ का इन्तेज़ार कर रहे हो। क्या तुम्हें जमा करने वाला दीन नहीं है और क्या जोश दिलाने वाली ग़ैरत नहीं है। मैं तुम में खड़ा होकर आवाज़ देता हूँ और तुम्हें फ़रयाद के लिये बुलाता हूँ लेकिन न मेरी बात सुनते हो और न मेरी इताअत करते हो।  

((( माविया की मुफ़सिदाना कारवाइयों में से एक अमल यह भी था के उसने नामान बिन बषीर की सरकरदगी में दो हज़ार का लष्कर ऐनलतमर पर हमला करने के लिये भेज दिया था जबके उस वक़्त अमीरूल मोमेनीन (अ0) की तरफ़ से मालिक बिन कअब एक हज़ार अफ़राद के साथ इलाक़े की निगरानी कर रहे थे लेकिन वह सब मौजूद न थे। मालिक ने हज़रत के पास पैग़ाम भेजा। आपने ख़ुत्बा इरषाद फ़रमाया लेकिन ख़ातिरख़्वाह असर न हुआ। सिर्फ़ अदमी बिन हातम अपने क़बीले के साथ तैयार हुए लेकिन आपने दूसरे क़बाएल को भी शामिल करना चाहा और जैसे ही मख़निफ़ बिन सलीम ने अब्दुर्रहमान बिन मख़निफ के हमराह पचास आदमी रवाना कर दिये लष्करे माविया आती हुई मकक को देख फ़रार कर गया। लेकिन क़ौम के दामन पर नाफ़रमानी का धब्बा रह गया के आम अफ़राद ने हज़रत के कलाम पर कोई तवज्जो नहीं दी।))) 

यहाँ तक के हालात के बदतरीन नताएज सामने आ जाएं। सच्ची बात यह है के तुम्हारे ज़रिये न किसी ख़ूने नाहक़ का बदला लिया जा सकता है और न कोई मक़सद हासिल किया जा सकता है। मैंने तुमको तुम्हारे ही भाइयों की मदद के लिये पुकारा मगर तुम उस ऊंट की तरह बिलबिलाने लगे जिसकी नाफ़ में दर्द हो और उस कमज़ोर शतर की तरह सुस्त पड़ गए जिसकी पुष्त ज़ख़्मी हो। इसके बाद तुमसे एक मुख़्तसर सी कमज़ोर, परेषान हाल सिपाह बरामद हुई इस तरह जैसे उन्हें मौत की तरफ़ ढकेला जा रहा हो और यह बेकसी से मौत देख रहे हों। सय्यद रज़ी- हज़रत (अ0) के कलाम में मतज़ाएब मुज़तरिब के मानी में है के अरब इस लफ़्ज़ को उस हवा के बारे में इस्तेमाल करते हैं जिसका रूख़ मुअय्यन नहीं होता है और भेडिये को भी ज़ैब इसीलिसे कहा जाता है के इसकी चाल बे-हंगम होती है। 

40- आपका इरषादे गिरामी (ख़वारिज के बारे में इनका यह मक़ौल सुन कर के ‘‘हुक्मे अल्लाह के अलावा किसी के लिये नहीं है) 

यह एक कलमए हक़ है जिससे बातिल मानी मुराद ले गए हैं- बेषक हुक्म सिर्फ़ अल्लाह के लिये है लेकिन उन लोगों का कहना है के हुकूमत और इमारत भी सिर्फ़ अल्लाह के लिये है हालांके खुली हुई बात है के निज़ामे इन्सानियत के लिये एक हाकिम का होना बहरहाल ज़रूरी है चाहे नेक किरदार हो या फ़ासिक़ के हुकूमत के ज़ेरे साया ही मोमिन को काम करने का मौक़ा मिल सकता है और काफ़िर भी मज़े उड़ा सकता है और अल्लाह हर चीज़ को उसकी आखि़री हद तक पहुंचा देता है और माले ग़नीमत व ख़ेराज वग़ैरह जमा किया जाता है और दुष्मनों से जंग की जाती है और रास्तों का तहफ़्फ़ुज़ किया जाता है और ताक़तवर से कमज़ोर का हक़ लिया जाता है ताके नेक किरदार इन्सान को राहत मिले और बदकिरदार इन्सान से राहत मिले। (एक रिवायत में है के जब आपको तहकीम की इत्तेला मिली तो फ़रमाया) ‘‘मैं तुम्हारे बारे में हुक्मे ख़ुदा का इन्तेज़ार कर रहा हूँ।’’ फिर फ़रमाया - हुकूमत नेक होती है तो मुत्तक़ी को काम करने का मौक़ा मिलता है और हाकिम फ़ासिक़ व फ़ाजिर होता है तो बदबख़्तों को मज़ा उड़ाने का मौक़ा मिलता है यहाँ तक के इसकी मुद्दत तमाम हो जाए और मौत उसे अपनी गिरफ्त में ले ले।

41- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा (जिसमें ग़द्दारी से रोका गया है और इसके नताएज से डराया गया है।)

अय्योहन्नास! याद रखो वफ़ा हमेषा सिदाक़त के साथ रहती है और मैं उससे बेहतर मुहाफ़िज़ कोई सिपर नहीं जानता हूँ और जिसे बाज़गष्त की कैफ़ियत का अन्दाज़ा होता है वह ग़द्दारी नहीं करता है। हम एक ऐसे दौर में वाक़ेअ हुए हैं जिसकी अक्सरीयत ने ग़द्दारी और मक्कारी का नाम होषियारी रख लिया है। 
(((सत्रहवीं सदी में एक फ़लसफ़ा ऐसा भी पैदा हुआ था जिसका मक़सद मिज़ाज की हिमायत था और उसका दावा यह था के हुकूमत का वजूद समाज में हामिक व महकूम का इम्तेयाज़ पैदा करता है। हुकूमत से एक तबक़े को अच्छी-अच्छी तन्ख़्वाहें मिल जाती हैं और दूसरा महरूम रह जाता है। एक तबक़े को ताक़त इस्तेमाल करने का हक़ होता है और दूसरे को यह हक़ नहीं होता है और यह सारी बातें मिज़ाजे इन्सानियत के खि़लाफ़ हैँ लेकिन हक़ीक़ते अम्र यह है के यह बयान लफ़्ज़ों में इन्तेहाई हसीन है और हक़ीक़त के एतबार से इन्तेहाई ख़तरनाक है और बयान करदा मफ़ासिद का इलाज यह है के हाकिमे आला को मासूम और आम हुक्काम को अदालत का पाबन्द तस्लीम कर लिया जाए। सारे फ़सादात का ख़ुद-ब-ख़ुद इलाज हो जाएगा।
मज़कूरा बाला फ़लसफ़े के खि़लाफ़ फ़ितरत की रौषनी भी वह थी जिसने 1920 ई0 में इसका जनाज़ा निकाल दिया और फिर कोई ऐसा अहमक़ फ़लसफ़ी नहीं पैदा हुआ।))) और अहले जेहालत ने इसका नाम हुस्ने तदबीर रख लिया है। आखि़र उन्हें क्या हो गया है? ख़ुदा इन्हें ग़ारत करे, वह इन्सान जो हालात के उलट फेर को देख चुका है वह भी हीला के रूख़ को जानता है लेकिन अम्र व नहीं इलाही इसका रास्ता रोक लेते हैं और वह इमकान रखने के बावजूद उस रास्ते को तर्क कर देता है और वह शख़्स इस मौक़े से फ़ायदा उठा लेता है जिसके लिये दीन सरे राह नहीं होता है।

42- आपका इरषादे गिरामी (जिसमें इत्तबाअ ख़्वाहिषात और तूले अमल से डराया गया है)

अय्योहन्नास! मैं तुम्हारे बारे में सबसे ज़्यादा दो चीज़ों का ख़ौफ़ रखता हूँ। इत्तेबाअ ख़्वाहिषात और दराज़िये उम्मीद, के इत्तेबाअ ख़्वाहिषात इन्सान को राहे हक़ से रोक देता है और तूले अमल आख़ेरत को भुला देता है। याद रखो दुनिया मुंह फेरकर जा रही है और इसमें से कुछ बाक़ी नहीं रह गया है मगर उतना जितना बरतन से चीज़ को उण्डेल देने के बाद तह में बाक़ी रह जाता है और आखि़रत अब सामने आ रही है। दुनिया व आख़ेरत दोनों की अपनी औलाद हैं। लेहाज़ा तुम आख़ेरत के फ़रज़न्दों में शामिल हो जाओ और ख़बरदार फ़रज़न्दाने दुनिया में शुमार न होना इसलिये के अनक़रीब हर फ़रज़न्द को इसके माल के साथ मिला दिया जाएगा। आज अमल की मंज़िल है और कोई हिसाब नहीं है और कल हिसाब ही हिसाब है और कोई अमल की गुंजाइष नहीं है।

43- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा

(जब जरीर बिन अब्दुल्लाह अल बजली को माविया के पास भेजने और माविया के इन्कारे बैयत के बाद असहाब को अहले शाम से जंग पर आमादा करना चाहा)

इस वक़्त मेरी अहले शाम से जंग की तैयारी जबके जरीर वहां मौजूद हैं शाम पर तमाम दरवाज़े बन्द कर देना है और उन्हें ख़ैर के रास्ते से रोक देना है और अगर वह ख़ैर का इरादा भी करना चाहें मैंने ख़ैर के लिये एक वक़्त मुक़र्रर कर दिया है। इसके बाद वह वहाँ या किसी धोके की बिना पर रूक सकते हैं या नाफ़रमानी की बिना पर, और दोनों सूरतों में मेरी राय यही है के इन्तेज़ार किया जाए लेहाज़ा अभी पेषक़दमी न करो और मैं मना भी नहीं करता हूँ अगर अन्दर-अन्दर तैयारी करते रहो। (((इन्सान की आक़ेबत का दारोमदार हक़ाएक और वाक़ेयात पर है और वहां हर शख़्स को इसकी माँ के नाम से पुकारा जाएगा के माँ ही एक साबित हक़ीक़त है बाप की तशख़ीस में तो इख़्तेलाफ़ हो सकता है लेकिन माँ की तशख़ीस में कोई इख़्तेलाफ़ नहीं हो सकता है। इमाम अलैहिस्सलाम का मक़सद यह है के दुनिया में आख़ेरत की गोद में परवरिष पाओ ताके क़यामत के दिन इसी से मिला दिये जाओ वरना अबनाए दुनिया इस दिन वह यतीम होंगे जिनका कोई बाप न होगा और माँ को भी पीछे छोड़ कर आए होंगे। ऐसा बेसहारा बनने से बेहतर यह है के यहीं से सहारे का इन्तेज़ाम कर लो और पूरे इन्तेज़ाम के साथ आख़ेरत का सफ़र इख़्तेयार करो।  यह इस अम्र की तरफ़ इषारा है के अमली एहतियात का तक़ाज़ा यह है के दुष्मन को कोई बहाना फ़राहम न करो और वाक़ई एहतियात का तक़ाज़ा यह है के उसके मक्रो फ़रेब से होशियार हो और हर वक़्त मुक़ाबला करने के लिये तैयार रहो।)))
मैंने इस मसले पर मुकम्मल ग़ौरो फ़िक्र कर लिया है और इसके ज़ाहिर व बातिन को उलट पलट कर देख लिया है। अब मेरे सामने दो ही रास्ते हैं या जंग करूं या बयानाते पैग़म्बरे इस्लाम (स0) का इन्कार कर दूँ। मुझसे पहले इस क़ौम का एक हुकमराँ था। उसने इस्लाम में बिदअतें ईजाद कीं और लोगों को बोलने का मौक़ा दिया तो लोगों ने ज़बान खोली। फिर अपनी नाराज़गी का इज़हार किया और आखि़र में समाज का ढांचा बदल दिया।

44- हज़रत का इरषादे गिरामी

(इस मौक़े पर जब मुस्क़िला बिन हबीरा शीबानी ने आपके आमिल से बनी नाजिया के असीर ख़रीद कर आज़ाद कर दिया और जब जब हज़रत ने उससे क़ीमत का मुतालबा किया तो बददयानती करते हुए शाम की तरफ़ फ़रार कर गया)

ख़ुदा बुरा करे मुस्क़िला का के उसने काम शरीफ़ों जैसा किया लेकिन फ़रार ग़ुलामों की तरह किया। अभी इसके मद्दाह ने ज़बान खोली भी नहीं थी के इसने ख़ुद ही ख़ामोष कर दिया और इसकी तारीफ़ कुछ कहने वाला कुछ कहने भी न पाया था के इसने मुंह बन्द कर दिया। अगर वह यहीं ठहरा रहता तो मैं जिस क़द्र क़ीमत मुमकिन होता उससे ले लेता और बाक़ी के लिये इसके माल की ज़्यादती का इन्तेज़ार करता।

45- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा

(यह ईदुल फ़ित्र के मौक़े पर आपके तवील ख़ुत्बे का एक जुज़ है जिसमें हम्दे ख़ुदा और मज़म्मते दुनिया का ज़िक्र किया गया है)

तमाम तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जिसकी रहमत से मायूस नहीं हुआ जाता और जिसकी नेमत से किसी का दामन ख़ाली नहीं है। न कोई शख़्स इसकी मग़फ़ेरत से मायूस हो सकता है और न किसी में इसकी इबादत से अकड़ने का इमकान है। न इसकी रहमत तमाम होती है और न इसकी नेमत का सिलसिला रूकता है। यह दुनिया एक ऐसा घर है जिसके लिये फ़ना और इसके बाषिन्दों के लिये जिला वतनी मुक़र्रर है। यह देखने में शीरीं और सरसब्ज़ है जो अपने तलबगार की तरफ़ तेज़ी से बढ़ती है और उसके दिल में समा जाती है। लेहाज़ा ख़बरदार इससे कूच की तैयारी करो और बेहतरीन ज़ादे राह लेकर चलो। इस दुनिया में ज़रूरत से ज़्यादा सवाल न करना और जितने से काम चल जाए उससे ज़्यादा का मुतालबा न करना।

((( उस वाक़िये का ख़ुलासा यह है के तहकीम के बाद ख़वारिज ने जिन शोरषों का आगणऩाज़ किया था उनमें एक बनी नाजिया के एक शख़्स ख़रीत बिन राषिद का इक़दाम था जिसको दबाने के लिये हज़रत ने ज़ियादा बिन हफ़सा को रवाना किया था और उन्होंने शोरष को दबा दिया था लेकिन ख़रीत दूसरे इलाक़ों में फ़ितने बरपा करने लगा तो हज़रत ने माक़ल बिन क़ैस रियाही को दो हज़ार का लष्कर देकर रवाना कर दिया और उधर इब्ने अब्बास ने बसरा से मकक भेज दी और बाला आखि़र हज़रत (अ0) के लष्कर ने फ़ितना को दबा दिया और बहुत से अफ़राद को क़ैदी बना लिया। क़ैदियों को लेकर जा रहे थे के रास्ते में मुस्क़ला के शहर से गुज़र हुआ। इसने क़ैदियों की फ़रयाद पर उन्हें ख़रीद कर आज़ाद कर दिया और क़ीमत की सिर्फ़ एक क़िस्त अदा कर दी। इसके बाद ख़ामोष बैठ गया। हज़रत (अ0) ने बार-बार मुतालबा किया। आखि़र में कूफ़ा आकर दो लाख दिरहम दे दिये और जान बचाने के लिये शाम भाग गया। हज़रत (अ0) ने फ़रमाया के काम शरीफ़ों का किया था लेकिन वाक़ेयन ज़लील ही साबित हुआ। काष इसे इस्लाम के इस क़ानून की इत्तेलाअ होती के क़र्ज़ की अदायगी में जब्र नहीं किया जाता है बल्कि हालात का इन्तेज़ार किया जाता है और जब मक़रूज़ के पास इमकानात फ़राहम हो जाते हैं तब क़र्ज़ का मुतालबा किया जाता है।)))